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ना-तवाँ वो हूँ कि दम भर नहीं बैठा जाता - हक़ीर कविता - Darsaal

ना-तवाँ वो हूँ कि दम भर नहीं बैठा जाता

ना-तवाँ वो हूँ कि दम भर नहीं बैठा जाता

वो बुलाते तो अभी उठ के मैं दौड़ा जाता

बुत-कदे में भी गया काबा की जानिब भी गया

अब कहाँ ढूँढने तुझ को तिरा शैदा जाता

क्यूँ जी क्यूँ ग़ैर की बातों का तो देते हो जवाब

हम जो कुछ पूछें तो मुँह से नहीं फूटा जाता

यक-ब-यक तर्क न करना था मोहब्बत मुझ से

ख़ैर जिस तरह से आता था वो आता जाता

कह के ये टल गए बालीं से अयादत को जो आए

अब तिरा हाल-ए-परेशाँ नहीं देखा जाता

ख़्वाहिश-ए-दश्त-नवर्दी कभी होती न मुझे

बेवफ़ा तू मिरे घर पर कभी आता जाता

ख़ाक फूलूँ-फलूँ इस गुलशन-ए-वीराँ में' 'हक़ीर'

बाग़-ए-हस्ती से ख़िज़ाँ का नहीं खटका जाता

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