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किस की उस तक रसाई होती है - हक़ीर कविता - Darsaal

किस की उस तक रसाई होती है

किस की उस तक रसाई होती है

हाँ मगर जिस की आई होती है

यार हम से सियाह-बख़्तों की

ज़ुल्फ़ तक कब रसाई होती है

ख़ूब मिल कर गले से रो लेना

इस से दिल की सफ़ाई होती है

डूबती है हमारी कश्ती-ए-दिल

आप से आश्नाई होती है

शोर है अल-फ़िराक़ का हर दम

हम से उन से जुदाई होती है

लश्कर-ए-ग़म की किश्वर-ए-दिल पर

रात दिन अब चढ़ाई होती है

उन की महफ़िल में जाते डरता हूँ

वाँ लगाई-बुझाई होती है

उस के दर पर 'हक़ीर' तुम भी चलो

वहीं मुश्किल-कुशाई होती है

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