तख़लीक़-ए-बे-सबात का ज़र्रा-नज़ीर हूँ
तख़लीक़-ए-बे-सबात का ज़र्रा-नज़ीर हूँ
साहिल की रेत पर कोई लिक्खी लकीर हूँ
गर्दिश है ज़िंदगी मिरी मंज़िल-रसा नहीं
मसरूफ़-ए-कार-कोह-कन इक जू-ए-शीर हूँ
माल-ओ-मता-ओ-सरवत-ए-जाँ कुछ मिरा नहीं
हाँ गर्दिश-ए-ज़माँ ने दिखाया फ़क़ीर हूँ
ज़िंदान-ए-दहर है मुझे इक क़स्र-ए-दिल-फ़रेब
अपनी ही ख़्वाहिशात का ऐसा असीर हूँ
जितना निकलना चाहा था उतना उलझ गया
गिर्दाब-ए-ज़िंदगी का मैं यूँ पा-ए-गीर हूँ
मुझ से जहाँ में आए और आ कर चले गए
फिर क्यूँ समझ रहा हूँ कि मैं बे-नज़ीर हूँ
अच्छा हुआ कि याद तू आया है आख़िरश
इस बे-ख़ुदी में भूल गया था 'हक़ीर' हूँ
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