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न वो वलवले हैं दिल में न वो आलम-ए-जवानी - हंस राज सचदेव 'हज़ीं' कविता - Darsaal

न वो वलवले हैं दिल में न वो आलम-ए-जवानी

न वो वलवले हैं दिल में न वो आलम-ए-जवानी

कोई ले गया है मुझ से मिरा दौर-ए-शादमानी

वो भला चुके हैं मुझ को मैं भुला चुका हूँ उन को

कभी पा सकी न उनवाँ मिरे प्यार की कहानी

शब-ए-हिज्र की तड़प ने वो मज़ा दिया है मुझ को

कि दुआएँ माँगता हूँ ये तड़प हो जावेदानी

तिरे कान सुन चुके हैं नए गीत बुल-हवस के

मुझे याद है वफ़ा की वही दास्ताँ पुरानी

तुझे खो दिया है पा कर ये मिरी है बद-नसीबी

कभी तुम बता तो देते मुझे वज्ह-ए-बद-गुमानी

तिरी मेहरबानियों की कभी आरज़ू थी दिल में

वो मक़ाम आ गया है कि गराँ है मेहरबानी

तिरे प्यार में 'हज़ीं' को जो मिला है दाग़-ए-फ़ुर्क़त

मिरे पास अब वही है तिरे प्यार की निशानी

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