मुस्कुरा दोगे तो ये रात सँवर जाएगी
मुस्कुरा दोगे तो ये रात सँवर जाएगी
हँस जो दोगे तो फ़ज़ा और निखर जाएगी
अपनी मंज़िल पे पहुँच जाएगी बेताब नज़र
अपने मरकज़ पे न पहुँची तो किधर जाएगी
काश उस हुस्न-ए-ख़ुद-आरा से कोई जा के कहे
ज़ुल्फ़ को लाख सँवारे ये बिखर जाएगी
मुंतज़िर शाम से उन का हूँ मगर जानता हूँ
आज की रात भी आँखों में गुज़र जाएगी
आप भी ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ को हटा लें रुख़ से
मेरे छूने से तो नागिन ये बिफर जाएगी
हाल-ए-दिल क्यूँ न 'हज़ीं' आज गुलों से कह दूँ
निकहत-ए-गुल भी मिरे दोस्त के घर जाएगी
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