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मुँह-ज़ोर हैं मग़रूर हैं पुर-कार नहीं हैं - हंस राज सचदेव 'हज़ीं' कविता - Darsaal

मुँह-ज़ोर हैं मग़रूर हैं पुर-कार नहीं हैं

मुँह-ज़ोर हैं मग़रूर हैं पुर-कार नहीं हैं

हम लोग अभी साहब-ए-किरदार नहीं हैं

जब आप ही उल्फ़त में वफ़ादार नहीं हैं

फिर हम से गिला क्यूँ कि तलबगार नहीं हैं

हम साक़ी-ए-मह-वश हैं गुनहगार-ए-अक़ीदत

हम पीने-पिलाने के गुनहगार नहीं हैं

बे-मेहरी-ओ-बे-गाँगी-ओ-जोर-ओ-तग़ाफ़ुल

हम ऐसी मोहब्बत के परस्तार नहीं हैं

क्या अहल-ए-चमन-ज़ार के अज्साम में है जान

क्या अहल-ए-चमन जान से बेज़ार नहीं हैं

मुख़्तार भी मालिक भी हैं ग़ैरों के लिए आप

अपनों के लिए मालिक-ओ-मुख़्तार नहीं हैं

मत पूछिए मयख़ाने का दस्तूर 'हज़ीं' से

ज़ी-होश ही मयख़ाने में होशियार नहीं हैं

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