दिल गिराँ-बारी-ए-वहशत में जिधर जाता है
दिल गिराँ-बारी-ए-वहशत में जिधर जाता है
शब-ए-मरहूम के ख़्वाबों सा बिखर जाता है
कोई पैमान-ए-वफ़ा सब्र से भर जाता है
चार-ओ-नाचार की दहशत में गुज़र जाता है
धानी आवाज़ों के सुर-ताल में बहते बहते
रक़्स-ए-सहराई के वो बन में उतर जाता है
रेत पर जलते हुए देख सराबों के चराग़
अपने बिखराव में वो और सँवर जाता है
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