ये फ़ज़ा-ए-नील-गूँ ये बाल-ओ-पर काफ़ी नहीं
ये फ़ज़ा-ए-नील-गूँ ये बाल-ओ-पर काफ़ी नहीं
माह-ओ-अंजुम तक मिरा ज़ौक़-ए-सफ़र काफ़ी नहीं
एक साअ'त इक सदी है इक नज़र आफ़ाक़-गीर
अब निज़ाम-ए-गर्दिश-ए-शाम-ओ-सहर काफ़ी नहीं
फिर जुनूँ को वुसअ'त-ए-अफ़्लाक है कोह-ए-निदा
ऐ दिल-ए-दीवाना दश्त-ए-पुर-ख़तर काफ़ी नहीं
ये हवा-ए-नम ये सीने में सुलगती आग सी
आह ये उम्र-ए-रवाँ की रह-गुज़र काफ़ी नहीं
फिर मशिय्यत से उलझती है मिरी दीवानगी
नाला-ए-शब-गीर अश्कों के गुहर काफ़ी नहीं
आरज़ू-ए-बे-कराँ है और जिस्म-ए-ना-तावाँ
क्या रग-ए-जाँ के लिए ये नेश्तर काफ़ी नहीं
ख़ुनकी-ए-शबनम से ग़ुंचे को नहीं तस्कीन-ए-क़ल्ब
ज़ख़्म-ए-गुल को अब नसीम-ए-चारा-गर काफ़ी नहीं
शीशा-ए-शब में भरी है 'फ़ौक़' जो सहबा-ए-कैफ़
क़तरा क़तरा भी पियूँ तो रात भर काफ़ी नहीं
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