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फ़ज़ाओं में कुछ ऐसी खलबली थी - हनीफ़ फ़ौक़ कविता - Darsaal

फ़ज़ाओं में कुछ ऐसी खलबली थी

फ़ज़ाओं में कुछ ऐसी खलबली थी

कलेजा थाम कर वहशत चली थी

कभी उस की जवानी मंचली थी

कभी दुनिया भी साँचे में ढली थी

यही आईना-दर-आईना उल्फ़त

कभी अक्स-ए-ख़फ़ी नक़्श-ए-जली थी

न छोड़ा सर्द झोंकों ने वफ़ा को

जो शाख़-ए-दर्द की तन्हा कली थी

बिगाड़ा किस ने है तब-ए-जहाँ को

कभी ये रिंद-मशरब भी वली थी

मुहीत हंगामा-ए-आफ़ाक़ पर है

सदा-ए-दर्द जो दिल में पली थी

ग़नीमत जानिए फिर नीम-रौशन

चराग़-ए-राह से अपनी गली थी

बुरा हो आगही का ज़ीस्त वर्ना

गुज़र जाती बुरी थी या भली थी

हमीं ने 'फ़ौक़' चाहा ज़िंदगी को

हमीं से किश्त-ए-ग़म फूली-फली थी

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