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दिल-ए-नादाँ पे शिकायत का गुमाँ क्या होगा - हनीफ़ फ़ौक़ कविता - Darsaal

दिल-ए-नादाँ पे शिकायत का गुमाँ क्या होगा

दिल-ए-नादाँ पे शिकायत का गुमाँ क्या होगा

चंद अश्कों से जफ़ाओं का बयाँ क्या होगा

शब के भटके हुए राही को ख़बर दे कोई

सुब्ह-ए-रंगीं की बहारों का निशाँ क्या होगा

नाला-ए-मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार से बे-ज़ारी क्या

गोश-ए-सय्याद पे अब ये भी गराँ क्या होगा

सच के कहने से अगर जी का ज़ियाँ होता है

सच बहर-हाल है सच मोहर-ए-दहाँ क्या होगा

चुप रहें हम तो सर-ए-दार पुकारेगा लहू

चंद ही रोज़ में आईन-ए-जहाँ क्या होगा

ज़र्रे ज़र्रे पे कोई फूँकेगा अफ़्सून-ए-बहार

माना-ए-जोश-ए-नुमू जौर-ए-ख़िज़ाँ क्या होगा

चश्म-ए-नर्गिस को हवस है कि चमन में देखे

आतिश-ए-गुल के भड़कने का समाँ क्या होगा

अब तो हम शहर-ए-निगाराँ से चले आए हैं

बाइ'स-ए-वहशत-ए-दिल हुस्न-ए-बुताँ क्या होगा

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