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आह-ओ-फ़रियाद से मा'मूर चमन है कि जो था - हनीफ़ फ़ौक़ कविता - Darsaal

आह-ओ-फ़रियाद से मा'मूर चमन है कि जो था

आह-ओ-फ़रियाद से मा'मूर चमन है कि जो था

माइल-ए-जौर वही चर्ख़-ए-कुहन है कि जो था

हुस्न पाबंदी-ए-आदाब-ए-जफ़ा पर मजबूर

इश्क़ आवारा सर-ए-कोह-ओ-दमन है कि जो था

लाख बदला सही मंसूर का आईन-ए-हयात

आज भी सिलसिला-ए-दार-ओ-रसन है कि जो था

डर के चौंक उठती हैं ख़्वाबों से नवेली कलियाँ

ख़ंदा-ए-गुल में वही साज़-ए-मेहन है कि जो था

शबनम-अफ़्शानी-ए-गुलशन है दम-ए-सुब्ह हनूज़

लाला-ओ-गुल पे वो अश्कों का कफ़न है कि जो था

दिल-ए-बे-ताब पे माज़ी की नवाज़िश है वही

शब-ए-महताब पे यादों का गहन है कि जो था

हाथ रख देता है शाने पे तसव्वुर उन का

ग़म की रातों में कोई जल्वा-फ़िगन है कि जो था

उन्हें क्या फ़िक्र कि पूछें दिल-ए-बीमार का हाल

बे-नियाज़ाना वो अंदाज़-ए-सुख़न है कि जो था

लाख बदला सही ऐ 'फ़ौक़' ज़माना लेकिन

तेरे अंदाज़ में बे-साख़्ता-पन है कि जो था

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