कुशूद-ए-कार की ख़ातिर ख़ुदा बदलते रहे
कुशूद-ए-कार की ख़ातिर ख़ुदा बदलते रहे
चराग़-ए-नज़्र थे हर आस्ताँ पे चलते रहे
फ़क़ीर-ए-इश्क़ हैं अपना कोई ठिकाना है क्या
हवा में उड़ते रहे पानियों पर चलते रहे
हम अहल-ए-दिल ने छुआ तक नहीं कभी कोई फूल
हवा-परस्त मगर तोड़ते मसलते रहे
फिसल के तुम भी अबस सुन गए हमारे साथ
हमें तो यूँ भी फिसलना था सो फिसलते रहे
न उस के लम्स की गर्मी न उस के क़ुर्ब की आँच
तसव्वुर उस का था ऐसा कि बस पिघलते रहे
वो इक जगह न कहीं रह सका और उस के साथ
किराया-दार थे हम भी मकाँ बदलते रहे
(738) Peoples Rate This