मुद्दतें गुज़रीं मुलाक़ात हुई थी तुम से
फिर कोई और न आया नज़र आईने में
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है राह-रौ के हुए हादसात की दीवार
तमाम आलम से मोड़ कर मुँह मैं अपने अंदर समा गया हूँ
की नज़र मैं ने जब एहसास के आईने में
कोई भी रुत हो मिली है दुखों की फ़स्ल हमें
अपने काँधों पे लिए फिरता हूँ अपनी ही सलीब
शब-ए-दराज़ का है क़िस्सा मुख़्तसर 'कैफ़ी'
बना के तोड़ती है दाएरे चराग़ की लौ
बिखर के रेत हुए हैं वो ख़्वाब देखे हैं
अपनी जानिब नहीं अब लौटना मुमकिन मेरा
थे मिरे ज़ख़्मों के आईने तमाम
आरज़ूएँ कमाल-आमादा