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तमाम आलम से मोड़ कर मुँह मैं अपने अंदर समा गया हूँ - हनीफ़ कैफ़ी कविता - Darsaal

तमाम आलम से मोड़ कर मुँह मैं अपने अंदर समा गया हूँ

तमाम आलम से मोड़ कर मुँह मैं अपने अंदर समा गया हूँ

मुझे न आवाज़ दे ज़माने मैं अपनी आवाज़ सुन रहा हूँ

तज़ाद-ए-हस्ती का फ़ल्सफ़ा हूँ उरूज ओ पस्ती का आइना हूँ

उठा हुआ इक ग़ुरूर-ए-सर हूँ मिटा हुआ एक नक़्श-ए-पा हूँ

हो क्या तअय्युन मिरी हदों का शुमार क्या मेरी वुसअतों का

हज़ारों आलम बसे हैं मुझ में मैं बेहद-ओ-बे-कराँ ख़ला हूँ

अज़ाब-ए-एहसास-ओ-आगही के वो दिल-शिकन ख़्वाब-पाश लम्हे

हज़ार आईने टूटते हैं मैं जब भी आईना देखता हूँ

मैं ना-शुनीदा सदा-ए-सहरा बनूँगा आवाज़-ए-वक़्त 'कैफ़ी'

ज़बान-ए-आलम पे आऊँगा कल मैं आज इक हर्फ़-ए-नारसा हूँ

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