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बिखर के रेत हुए हैं वो ख़्वाब देखे हैं - हनीफ़ कैफ़ी कविता - Darsaal

बिखर के रेत हुए हैं वो ख़्वाब देखे हैं

बिखर के रेत हुए हैं वो ख़्वाब देखे हैं

मिरी निगाह ने कितने सराब देखे हैं

सहर कहें तो कहें कैसे अपनी सुब्हों को

कि रात उगलते हुए आफ़्ताब देखे हैं

कोई भी रुत हो मिली है दुखों की फ़स्ल हमें

जो मौसम आया है उस के इताब देखे हैं

मैं बद-गुमान नहीं हूँ मगर किताबों में

तुम्हारे नाम कई इंतिसाब देखे हैं

कभी की रुक गई बारिश गुज़र चुका सैलाब

कई घर अब भी मगर ज़ेर-ए-आब देखे हैं

कोई हमारी ग़ज़ल भी मुलाहिज़ा करना

तुम्हारे हम ने कई इंतिख़ाब देखे हैं

पनाह ढूँडते गुज़री है ज़िंदगी 'कैफ़ी'

झुलसती धूप में साए के ख़्वाब देखे हैं

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