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बना के तोड़ती है दाएरे चराग़ की लौ - हनीफ़ कैफ़ी कविता - Darsaal

बना के तोड़ती है दाएरे चराग़ की लौ

बना के तोड़ती है दाएरे चराग़ की लौ

बहा के ले गई मुझ को कहाँ शुऊर की रौ

बना चुका हूँ अधूरे मुजस्समे कितने

कहाँ वो नक़्श जो तकमील-ए-फ़न का हो परतव

वो मोड़ मेरे सफ़र का है नुक़्ता-ए-आग़ाज़

फ़रेब-ख़ुर्दा-ए-मंज़िल हुए जहाँ रह-रौ

लरज़ते हैं मिरी महरूम-ए-ख़्वाब आँखों में

बिखर चुके हैं जो ख़्वाब उन के मुंतशिर परतव

भटक न जाऊँ मैं तश्कीक के अंधेरों में

लरज़ रही है मिरी शम-ए-एतक़ाद की लौ

शब-ए-दराज़ का है क़िस्सा मुख़्तसर 'कैफ़ी'

हुई सहर के उजालों में गुम चराग़ की लौ

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