जो कुशूद-ए-कार-ए-तिलिस्म है वो फ़क़त हमारा ही इस्म है
वो गिरह किसी से खुलेगी क्या जो तिरी जबीं की शिकन में है
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आँखों में जल रहे थे दिए ए'तिबार के
देखिए रुस्वा न हो जाए कहीं कार-ए-जुनूँ
हर-चंद हमा-गीर नहीं ज़ौक़-ए-असीरी
इस तरह अहद-ए-तमन्ना को गुज़ारे जाइए
इज़हार पे भारी है ख़मोशी का तकल्लुम
अजब है आलम अजब है मंज़र कि सकता में है ये चश्म-ए-हैरत
पूछती रहती है जो क़ैसर-ओ-किसरा का मिज़ाज
ये सानेहा भी बड़ा अजब है कि अपने ऐवान-ए-रंग-ओ-बू में
तुम्हारी आँखों की गर्दिशों में बड़ी मुरव्वत है हम ने माना
इश्क़ जब मंज़िल-ए-आख़िर से गुज़रता होगा
इश्क़ में दिल का ये मंज़र देखा