हसीन सूरत हमें हमेशा हसीं ही मालूम क्यूँ न होती
हसीन अंदाज़-ए-दिल-नवाज़ी हसीन-तर नाज़ बरहमी का
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दिल की मिरे बिसात क्या एक दिया बुझा हुआ
आइने में है फ़क़त आप का अक्स
अज़्म-ए-सफ़र से पहले भी और ख़त्म-ए-सफ़र से आगे भी
इतना सुकून तो ग़म-ए-पिन्हाँ में आ गया
निगाहें फेरने वाले ये नज़रें उठ ही जाती हैं
अजब है आलम अजब है मंज़र कि सकता में है ये चश्म-ए-हैरत
तुम्हारी आँखों की गर्दिशों में बड़ी मुरव्वत है हम ने माना
हर-चंद हमा-गीर नहीं ज़ौक़-ए-असीरी
इज़हार पे भारी है ख़मोशी का तकल्लुम
ख़ल्वत-ए-जाँ में तिरा दर्द बसाना चाहे
कुश्ता-ए-ज़बत-ए-फुग़ाँ नग़्मा-ए-बे-साज़-ओ-सदा