फ़ुक़दान-ए-उरूज-ए-रसन-ओ-दार नहीं है
मंसूर बहुत हैं लब-ए-इज़हार नहीं है
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पूछती रहती है जो क़ैसर-ओ-किसरा का मिज़ाज
शिकस्ता दिल किसी का हो हम अपना दिल समझते हैं
बे-शक असीर-ए-गेसू-ए-जानाँ हैं बे-शुमार
वो मुझे सोज़-ए-तमन्ना की तपिश समझा गया
जो कुशूद-ए-कार-ए-तिलिस्म है वो फ़क़त हमारा ही इस्म है
अपनी नज़रों को भी दीवार समझता होगा
इस तरह अहद-ए-तमन्ना को गुज़ारे जाइए
ख़ल्वत-ए-जाँ में तिरा दर्द बसाना चाहे
तुम्हारी आँखों की गर्दिशों में बड़ी मुरव्वत है हम ने माना
जब भी उस ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ की हवा आती है
बज़्म को रंग-ए-सुख़न मैं ने दिया है 'अख़्गर'