देखो हमारी सम्त कि ज़िंदा हैं हम अभी
सच्चाइयों की आख़िरी पहचान की तरह
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साज़ में सोज़ जब नहीं आता
इश्क़ जब मंज़िल-ए-आख़िर से गुज़रता होगा
हसीन सूरत हमें हमेशा हसीं ही मालूम क्यूँ न होती
हर तरफ़ हैं ख़ाना-बर्बादी के मंज़र बे-शुमार
जो कुशूद-ए-कार-ए-तिलिस्म है वो फ़क़त हमारा ही इस्म है
अपनी नज़रों को भी दीवार समझता होगा
ये सानेहा भी बड़ा अजब है कि अपने ऐवान-ए-रंग-ओ-बू में
ख़ल्वत-ए-जाँ में तिरा दर्द बसाना चाहे
निगाहें फेरने वाले ये नज़रें उठ ही जाती हैं
अज़्म-ए-सफ़र से पहले भी और ख़त्म-ए-सफ़र से आगे भी
बे-शक असीर-ए-गेसू-ए-जानाँ हैं बे-शुमार
तुम्हारी आँखों की गर्दिशों में बड़ी मुरव्वत है हम ने माना