बे-शक असीर-ए-गेसू-ए-जानाँ हैं बे-शुमार
है कोई इश्क़ में भी गिरफ़्तार देखना
Faiz Ahmad Faiz
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तुम ख़ुद ही मोहब्बत की हर इक बात भुला दो
निगाहें फेरने वाले ये नज़रें उठ ही जाती हैं
जो मुसाफ़िर भी तिरे कूचे से गुज़रा होगा
शदीद तुंद हवाएँ हैं क्या किया जाए
यादों का शहर-ए-दिल में चराग़ाँ नहीं रहा
अजब है आलम अजब है मंज़र कि सकता में है ये चश्म-ए-हैरत
ये सानेहा भी बड़ा अजब है कि अपने ऐवान-ए-रंग-ओ-बू में
काफ़िर सही हज़ार मगर इस को क्या कहें
हाल-ए-दिल-ए-बीमार समझ में चारागरों की आए कम
नफ़स नफ़स ने उड़ाईं हवाइयाँ क्या क्या
तोड़ कर जोड़ दिया करते हो क्या करते हो
हर-चंद हमा-गीर नहीं ज़ौक़-ए-असीरी