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यादों का शहर-ए-दिल में चराग़ाँ नहीं रहा - हनीफ़ अख़गर कविता - Darsaal

यादों का शहर-ए-दिल में चराग़ाँ नहीं रहा

यादों का शहर-ए-दिल में चराग़ाँ नहीं रहा

क्या कोई ग़म ही शो'ला-ब-दामाँ नहीं रहा

अब ए'तिराफ़-ए-अ'हद-ए-वफ़ा कर रहे हैं वो

जब ए'तिबार-ए-उ'म्र-ए-गुरेज़ाँ नहीं रहा

निकले कुछ और आबला-पाई की अब सबील

सहरा में कोई ख़ार-ए-मुग़ीलाँ नहीं रहा

बख़िया-गरी-ए-दिल के तसव्वुर में गुम हुए

गोया ख़याल-ए-जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ नहीं रहा

ये सोच कर कि ख़ूगर-ए-ग़म हो न जाऊँ मैं

वो सरगिराँ हुआ सितम अर्ज़ां नहीं रहा

आज़ार-ए-हिज्र अपनी जगह मुस्तक़िल मगर

दिल मुझ से तेरे क़ुर्ब का ख़्वाहाँ नहीं रहा

याद-ए-ख़ुदा ही का'बा-ए-दिल में बसाइए

अब एक बुत भी दुश्मन-ए-ईमाँ नहीं रहा

इम्कान-ए-वस्ल-ए-यार तो 'अख़्गर' कभी न था

आज़ार-ए-हिज्र-ए-यार का अरमाँ नहीं रहा

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