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वो मुझे सोज़-ए-तमन्ना की तपिश समझा गया - हनीफ़ अख़गर कविता - Darsaal

वो मुझे सोज़-ए-तमन्ना की तपिश समझा गया

वो मुझे सोज़-ए-तमन्ना की तपिश समझा गया

मोम का पैकर समझ कर धूप में ठहरा गया

उस की बज़्म-ए-गुल हैं अपने ख़ाना-ए-वीराँ की सम्त

मैं मिसाल-ए-अब्र आया सूरत-ए-सहरा गया

था अमीर-ए-शहर गर अपनी जगह बर-हक़ तो फिर

आईना जब सामने आया तो क्यूँ घबरा गया

अब कोई सफ़्फ़ाक दुनिया के ग़मों का ग़म नहीं

हम को तेरा ग़म समझने का सलीक़ा आ गया

किस से देखा जाएगा उस का जमाल-ए-नौ-ब-नौ

एक जल्वा ही निगाह-ए-शौक़ को पथरा गया

बाज़ी-ए-दिल हम ने यूँ खेली बिसात दहर पर

शह पे शह पड़ती रही हर शह पे इक मोहरा गया

चढ़ते सूरज के पुजारी कल के सूरज को न भूल

वो भी सूरज था यूँ ही निकला चढ़ा उतरा गया

अब न वो मुश्ताक़ नज़रें हैं न वो बेताब दिल

बे-महाबा आए साँसों का वो पहरा गया

कुछ अजब था तेरी बज़्म-ए-नाज़ में 'अख़्गर' का हाल

आज उस को देर तक कुछ सोचता देखा गया

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