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वो दिल में और क़रीब-ए-रग-ए-गुलू भी मिले - हनीफ़ अख़गर कविता - Darsaal

वो दिल में और क़रीब-ए-रग-ए-गुलू भी मिले

वो दिल में और क़रीब-ए-रग-ए-गुलू भी मिले

ज़रा सा लुत्फ़ मगर हम से रू-ब-रू भी मिले

जो कोई वाक़िफ़-ए-आदाब-ए-रंग-ओ-बू भी मिले

तो अश्क-ए-ख़ूँ में बू-ए-ज़ख़्म-ए-आरज़ू भी मिले

हज़ार ज़ख़्म को क्या बे-शुमार ज़ख़्म लगे

उसी के साथ मगर फ़ुर्सत-ए-रफ़ू भी मिले

ये बुत-कदा न सही फिर भी मय-कदा तो नहीं

यहाँ तो हम को कई रिंद बे-वुज़ू भी मिले

हमें तो आरज़ू-ए-इज़्न-ए-हाज़िरी है बहुत

ज़हे-नसीब अगर इज़्न-ए-गुफ़्तुगू भी मिले

वो इस को कैसे ख़मोशी क़रार दे आख़िर

मिरे सुकूत में जब जुर्म-ए-गुफ़्तुगू भी मिले

मिले जहाँ भी पयाम-ए-हयात-ए-नौ मुझ को

मज़ा तो जब है वहीं मेरे यार तू भी मिले

वो एक आप ही अपनी मिसाल है 'अख़्गर'

और आप जैसे कई उस को हू-ब-हू भी मिले

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