ख़ल्वत-ए-जाँ में तिरा दर्द बसाना चाहे

ख़ल्वत-ए-जाँ में तिरा दर्द बसाना चाहे

दिल समुंदर में भी दीवार उठाना चाहे

पर्दा-दारी ये मोहब्बत को निभाना चाहे

दिल में छुप कर वो कहाँ सामने आना चाहे

उस के दामन पे बिखर जाए सितारों की तरह

ख़ामुशी हाल अगर अपना सुना चाहे

उस से क्या कोई करे आग बुझाने का सवाल

वो तो जज़्बात में बस आग लगाना चाहे

हुस्न बरहम कि मनाने को है सदियाँ दरकार

रोज़ इक तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ का बहाना चाहे

इश्क़ को फ़र्श भी काँटों का गवारा है मगर

हुस्न हर हाल में एक आईना-ख़ाना चाहे

बन गया मेरी मोहब्बत का हरीफ़ ऐ 'अख़्गर'

मैं जिसे चाहूँ उसी को ये ज़माना चाहे

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