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इतना सुकून तो ग़म-ए-पिन्हाँ में आ गया - हनीफ़ अख़गर कविता - Darsaal

इतना सुकून तो ग़म-ए-पिन्हाँ में आ गया

इतना सुकून तो ग़म-ए-पिन्हाँ में आ गया

आग़ोश-ए-दिल से दामन-ए-मिज़्गाँ में आ गया

दिल अश्क बन के दीदा-ए-गिर्यां में आ गया

ख़ुर्शीद जैसे रौज़न-ए-ज़िंदाँ में आ गया

मुझ को तो रंग-ओ-बू में उलझने से था गुरेज़

मैं ने ये क्या किया कि गुलिस्ताँ में आ गया

अक्स-ए-जमाल-ए-यार ब-तदरीज-ए-ज़ौक़-ए-दीद

आँखों से दिल में दिल से रग-ए-जाँ में आ गया

फिर मेरे अपने आप में रहने का क्या सवाल

जब वो मिरे हरीम-ए-दिल-ओ-जाँ में आ गया

मरहम का नाम ले के न ज़ख़्मों को छेड़िए

मरहम भला कहाँ से नमक-दाँ में आ गया

वहशत-असर फ़ज़ा है न दीवार-ओ-दर यहाँ

बे-कार ही मैं घर से बयाबाँ में आ गया

'अख़्गर' जुनून-ए-इश्क़-ए-नवर्दी किधर गया

मजनूँ तो मेरे ख़ाना-ए-वीराँ में आ गया

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