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इश्क़ जब मंज़िल-ए-आख़िर से गुज़रता होगा - हनीफ़ अख़गर कविता - Darsaal

इश्क़ जब मंज़िल-ए-आख़िर से गुज़रता होगा

इश्क़ जब मंज़िल-ए-आख़िर से गुज़रता होगा

एक भी अश्क न आँखों से टपकता होगा

हम तो जब जानें कि जब वक़्त हमारा बदले

लोग कहते हैं बदलता है बदलता होगा

होगा ऐ दोस्त यक़ीनन वो मिरे दिल की तरह

जो दिया रुख़ पे हवाओं के भी जलता होगा

आज ठहराया है ख़ुद जिस ने मुझे क़ाबिल-ए-दार

कल वही मेरी वफ़ाओं को तरसता होगा

साग़र-ए-चश्म में मय-कश उसे भरते होंगे

रंग जब आप के चेहरे से छलकता होगा

जो नज़र उठती है बन जाती है इक मौज-ए-ख़ुमार

दस्त-ए-साक़ी में कोई जाम छलकता होगा

हाल 'अख़्गर' के तड़पने का सुना जब तो कहा

उस की फ़ितरत ही तड़पना है तड़पता होगा

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