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इस तरह मह-रुख़ों को पशेमाँ करेंगे हम - हनीफ़ अख़गर कविता - Darsaal

इस तरह मह-रुख़ों को पशेमाँ करेंगे हम

इस तरह मह-रुख़ों को पशेमाँ करेंगे हम

अब दाग़ दाग़ दिल का नुमायाँ करेंगे हम

आईना बन के जाएँगे बज़्म-ए-जमाल में

महफ़िल के रू-ब-रू उन्हें हैराँ करेंगे हम

आए तो वो बहार-ए-दिल-ओ-जाँ निगाह में

इक इक नफ़स को रश्क-ए-गुलिस्ताँ करेंगे हम

उस बुत को अपने दिल में बसाने से पेशतर

पैमाइश-ए-हरारत-ए-ईमाँ करेंगे हम

मिल जाए उन का नक़्श-ए-कफ़-ए-पा अगर कहीं

इक इक लकीर जुज़्व-ए-रग-ए-जाँ करेंगे हम

एहसान-ए-वस्ल-ए-यार भी मंज़ूर है मगर

आज़ार-ए-हिज्र-ए-यार के अरमाँ करेंगे हम

'अख़्गर' किसी की याद में लाज़िम है एक जश्न

ख़ून-ए-जिगर से ख़ातिर-ए-मिज़्गाँ करेंगे हम

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