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देखना ये इश्क़ में हुस्न-ए-पज़ीराई के रंग - हनीफ़ अख़गर कविता - Darsaal

देखना ये इश्क़ में हुस्न-ए-पज़ीराई के रंग

देखना ये इश्क़ में हुस्न-ए-पज़ीराई के रंग

अंजुमन-दर-अंजुमन हों मेरी तन्हाई के रंग

दिल के हर गोशे में जल उट्ठे हैं ज़ख़्मों के चराग़

अल्लाह अल्लाह इक मसीहा की मसीहाई के रंग

इस अदा से आ गए हैं वो नज़र के रू-ब-रू

और गहरे हो गए हैं इस दिल की बीनाई के रंग

हो सदाक़त का जो दा'वा देख ले जी आइना

आइने ही में नज़र आते हैं सच्चाई के रंग

हर दर-ओ-दीवार पर लिक्खा हुआ है मेरा नाम

वज्ह-ए-शोहरत बन गए हैं कितने रुस्वाई के रंग

हर नज़र अपनी जगह ख़ुद एक जल्वा बन गई

छा गए ऐसे तुम्हारी जल्वा-आराई के रंग

देर तक 'अख़्गर' दर-ए-जाँ पर चराग़ों की तरह

रौशनी देते रहे मेरी जबीं-साई के रंग

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