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अक्स है बे-ताबियों का दिल की अरमानों में क्यूँ - हामिदुल्लाह अफ़सर कविता - Darsaal

अक्स है बे-ताबियों का दिल की अरमानों में क्यूँ

अक्स है बे-ताबियों का दिल की अरमानों में क्यूँ

बे-ज़बाँ शामिल हुए जाते हैं मेहमानों में क्यूँ

हो गए दीवाने रुख़्सत बस्तियों की सम्त क्या

छा गईं वीरानियाँ सी फिर बयाबानों में क्यूँ

दिल की उस बे-रौनक़ी का ज़िक्र जाने दीजिए

हो रही हैं बस्तियाँ तब्दील वीरानों में क्यूँ

है रक़ाबत जुज़्व-ए-लाज़िम मेहर-ओ-उल्फ़त का अगर

इजतिमाई इश्क़ फिर होता है परवानों में क्यूँ

क्या किसी कुटिया के अंदर जाग उठी है ज़िंदगी

खलबली सी पड़ गई महलों में ऐवानों में क्यूँ

बीख़-कुन थे जो सितम-रानों के कल तक ऐ नदीम

हो रहा है अब शुमार उन का सितम-रानों में क्यूँ

अम्न के ख़्वाहाँ हैं जब 'अफ़सर' जहाँ वाले तमाम

कश्मकश रहती है फिर इतनी जहाँ-बानों में क्यूँ

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