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बस उसी का सफ़र-ए-शब में तलबगार है क्या - हामिदी काश्मीरी कविता - Darsaal

बस उसी का सफ़र-ए-शब में तलबगार है क्या

बस उसी का सफ़र-ए-शब में तलबगार है क्या

तू ही ऐ माह मिरा हमदम ओ ग़म-ख़्वार है क्या

तेशा-दर-दस्त उमँड आई है आबादी तमाम

सब यही कहते हैं देखें पस-ए-दीवार है क्या

हाँ इसी लम्हे में होता है सितारों का नुज़ूल

शहर-ए-ख़्वाबीदा में कोई दिल-ए-बेदार है क्या

जिस्म तो जिस्म है मजरूह हुई है जाँ भी

अपनों के होते हुए शिकवा-ए-अग़्यार है क्या

थरथरी पत्तों पे है दर्द-ब-जाँ हैं कलियाँ

तू भी ऐ बाद-ए-सहर दरपए-आज़ार है क्या

लब हिलाने की सकत है न क़दम उठते हैं

सामने जो भी है दलदल में गिरफ़्तार है क्या

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