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मेरा जी चाहता है - हमीदा शाहीन कविता - Darsaal

मेरा जी चाहता है

तुम्हारे रेशमी बिस्तर से उतरूँ

मुझे उतनी ज़मीं दे दो जहाँ मैं पाँव रख लूँ

ज़रा सा आसमाँ जिस से मैं अपने सर को ढक लूँ

फ़राग़त का कोई लम्हा कि जिस में

मैं अपने दिल की बिखरी ख़्वाहिशें आँगन से चुन कर

तुम्हारे दिल की अलमारी में रक्खूँ

तुम्हारी ख़ाक-ए-पा में गुम हुए ख़्वाबों को ढूँडूँ

और अपने मुश्कबू तकिए में भर लूँ

तुम्हारे पाँव से लिपटी हुई नज़रों को खोलूँ

ज़रा सा सर उठा कर आसमाँ का रंग देखूँ

तुम्हारे प्यार की नीली फ़ज़ा में ज़िंदगी-भर

परिंदे की तरह मैं उड़ती जाऊँ

मिरा दिल तो बहुत कुछ चाहता है

मगर इस दिल का क्या है

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