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मोहब्बत पर यक़ीं था जब - हमीदा शाहीन कविता - Darsaal

मोहब्बत पर यक़ीं था जब

मैं ज़िंदा हूँ

तवानाई

मिरी रग रग में बहती है

मैं जब चाहूँ

ज़रा सा हाथ उठा कर आसमाँ छू लूँ

फ़ज़ा में तैरती जाऊँ

सबा हर सुब्ह दिलकश रक़्स करती है मिरी ख़ातिर

शफ़क़ हर शाम सजती है कि मैं उस पर नज़र डालूँ

सितारे आँख रखते हैं मिरे अबरू की जुम्बिश पर

इशारा हो तो सब के सब मिरे आँचल पे आ जाएँ

मैं सरगोशी करूँ तो ज़िंदगी मसहूर हो जाए

ज़रा नज़रें उठाऊँ वक़्त की रफ़्तार थम जाए

मैं हँसती हूँ

हरी शाख़ों पे खिलते सुर्ख़ फूलों में

मिरे आँसू

सुनहरी तश्तरी में पेश होते हैं

ख़ुदाई बारगाहों में

हुज़ूरी का शरफ़ मिलता है मेरी सब दुआओं को

कभी

महसूस होता था

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