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यक़ीन से बाहर बिखरा सच - हमीदा शाहीन कविता - Darsaal

यक़ीन से बाहर बिखरा सच

महकते रेशमी बिस्तर पे टूटा काँच बिखरा है

मुलाएम नर्म तकिए में बसी है खुरदुरी ख़ुश्बू

नशीली नींद के टुकड़े हैं कूड़े-दान की ज़ीनत

लिखी हैं क़ुर्मुज़ी पर्दों पे ना-मानूस तहरीरें

सुनहरे फूलदानों में सजी हैं अजनबी आँखें

ये सब कैसे हुआ और क्यूँ हुआ

किस ख़्वाब से पूछूँ

मैं क्या सोचूँ

मिरी सोचें मिरे अपने लहू में डूब जाती हैं

है कोई ज़ख़्म ऐसा जो मुसलसल ख़ूँ उगलता है

लहू की धार गिरती है

ख़याल-ओ-ख़्वाब के ऊपर

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