यक़ीन से बाहर बिखरा सच
महकते रेशमी बिस्तर पे टूटा काँच बिखरा है
मुलाएम नर्म तकिए में बसी है खुरदुरी ख़ुश्बू
नशीली नींद के टुकड़े हैं कूड़े-दान की ज़ीनत
लिखी हैं क़ुर्मुज़ी पर्दों पे ना-मानूस तहरीरें
सुनहरे फूलदानों में सजी हैं अजनबी आँखें
ये सब कैसे हुआ और क्यूँ हुआ
किस ख़्वाब से पूछूँ
मैं क्या सोचूँ
मिरी सोचें मिरे अपने लहू में डूब जाती हैं
है कोई ज़ख़्म ऐसा जो मुसलसल ख़ूँ उगलता है
लहू की धार गिरती है
ख़याल-ओ-ख़्वाब के ऊपर
(1198) Peoples Rate This