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उल्टा चक्कर - हमीदा शाहीन कविता - Darsaal

उल्टा चक्कर

अजीब चक्कर कोई चला है

जो शय जहाँ से उठाना चाही

उठा न पाए

जहाँ जो रक्खा वहाँ वो रक्खा नहीं रहा है

जो लिखना चाहा वो लिख न पाए

तमाम चक्कर उलट चला है

जो ख़्वाब के दाएरे से बाहर था उस ने आँखों से बैर रक्खा

दिल-ओ-नज़र में जिसे जगह दी वो ख़्वाब बन कर बिखर गया है

नसीब में जो नहीं था उस की तलाश में ज़िंदगी लगा दी

जो हाथ में था वो बे-ख़ुदी में दिया है

जो बात कहनी थी उस की हिम्मत जुटा न पाए

जो लब पे आया वो हर्फ़ ही ग़ैर हो गया है

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