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तुलूअ' से पहले - हमीदा शाहीन कविता - Darsaal

तुलूअ' से पहले

कभी

यूँ ही

किसी शब चाँदनी का हाथ लगते ही

बिना दस्तक के खुल जाता है इक कमरे का दरवाज़ा

दरीचों से कोई मदहोश-कुन ख़ुशबू निकलती है

फ़ज़ा में मुस्कुराती है

हयूले से कई पर्दों पे बनते हैं बिगड़ते हैं

कोई मौहूम आहट फैल जाती है समाअ'त पर

किताबें जाग उठती हैं कोई सफ़्हे उलटता है

हवा में सरसराते हैं अधूरी नज़्म के टुकड़े

फ़ज़ा में तैरते हैं हर तरफ़ भटके हुए मिसरे

कहीं मद्धम सुरों का साज़ कोई छेड़ देता है

अँधेरे के समुंदर में कोई बजरा सा चलता है

पुराने गीत बहते हैं

उदासी ताल देती है

कभी शीशों पे हल्की नीलगूँ लहरें मचलती हैं

किसी आवाज़ का साया खुली खिड़की में आता है

किरन कोई ज़रा सा झिलमिला कर टूट जाती है

समझ में कुछ नहीं आता

अँधेरे में बिखरता क्या है क्या तरतीब पाता है

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