साहिर
हमेशा तुम ने अपना-आप अपनी जेब में रक्खा
मगर फिर भी कुशादा-दिल कुशादा-दस्त कहलाए
लुटाया तुम ने ख़ुद पर दूसरों को मुट्ठियाँ भर के
हमेशा चाहने वालों को अफ़्सूँ की तरह बरता
मगर ऐसे सलीक़े से
कि ख़ुद को सर्फ़ कर के भी किसी को ग़म नहीं होता
तुम्हारा सेहर ऐसा है
कि जिस पर काम कर जाए
कभी फिर कम नहीं होता
तुम्हारा रंग जिस पर भी चढ़े
मद्धम नहीं होता
(891) Peoples Rate This