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घूम रहे हैं आँगन आँगन चाँद हवा और मैं - हामिद यज़दानी कविता - Darsaal

घूम रहे हैं आँगन आँगन चाँद हवा और मैं

घूम रहे हैं आँगन आँगन चाँद हवा और मैं

ढूँड रहे हैं बिछड़ा बचपन चाँद हवा और मैं

भूला-बिसरा अफ़्साना हैं आज उस के नज़दीक

कल तक थे जिस दिल की धड़कन चाँद हवा और मैं

ख़्वाबों से बे-नाम जज़ीरों में घूमे सौ बार

यादों का थामे हुए दामन चाँद हवा और मैं

अपने ही घर में हैं या सहरा में गर्म-ए-सफ़र

क्यूँकर सुलझाएँ ये उलझन चाँद हवा और मैं

आज के दौर में अपनी ही पहचान हुई दुश्वार

देख रहे हैं वक़्त का दर्पन चाँद हवा और मैं

रंग का हाला ख़ुशबू का इक झोंका कुछ तो मिले

कब से हैं आवारा-ए-गुलशन चाँद हवा और मैं

परछाईं के पीछे भागे खोए ख़लाओं में

निकले आप ही अपने दुश्मन चाँद हवा और मैं

जाने किस की कौन है मंज़िल फिर भी हैं इक साथ

घूम रहे हैं तीनों बन बन चाँद हवा और मैं

उर्यानी का दोश किसे दें अपनी है तक़दीर

ख़ुद ही जला बैठे पैराहन चाँद हवा और मैं

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