जुदाइयों के तसव्वुर ही से रुलाऊँ उसे
जुदाइयों के तसव्वुर ही से रुलाऊँ उसे
मैं झूट-मूट का क़िस्सा कोई सुनाऊँ उसे
उसे यक़ीन है कितना मिरी वफ़ाओं का
ख़िलाफ़ अपने किसी रोज़ वरग़्लाऊँ उसे
वो तपती धूप में भी साथ मेरे आएगा
मगर मैं चाँदनी रातों में आज़माऊँ उसे
ग़मों के सहरा में फिरता रहूँ उसे ले कर
उदासियों के समुंदर में साथ लाऊँ उसे
मज़ा तो जब है उसे भीड़ में कहीं खो दूँ
फिर इस के बअ'द कहीं से में ढूँड लाऊँ उसे
ये क्या कि रोज़ वही सोच पर मुसल्लत हो
कभी तो ऐसा हो कुछ देर भूल जाऊँ उसे
कुछ और ख़्वाब भी उस से छुपा के देखे हैं
कुछ और चेहरे निगाहों में हैं दिखाऊँ उसे
वो गीली मिट्टी की मानिंद है मगर 'हामिद'
ज़रूरी क्या है कि अपना ही सा बनाऊँ उसे
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