जब्र बे-चारगी के मारों में
जब्र बे-चारगी के मारों में
हम हैं ख़ुद अपने सोगवारों में
आइने अक्स को तरसते हैं
सूरतों के तिलिस्म-ज़ारों में
लग़्ज़िश-ए-पा-ए-बे-ज़बानी तक
रौशनी कम है रहगुज़ारों में
लोग अपनी तलाश की ख़ातिर
छुप गए जुस्तुजू के ग़ारों में
किस को तूल-ए-कलाम की फ़ुर्सत
बात करते हैं इस्तिआरों में
मौत का इंतिज़ार करते हैं
मुजरिमों की तरह क़तारों में
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