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प्यारा देस - हामिद हसन क़ादरी कविता - Darsaal

प्यारा देस

देस अपना हम को प्यारा क्यूँ न हो

देस अपना हम को प्यारा क्यूँ न हो

दिल फ़िदा इस पर हमारा क्यूँ न हो

''हिन्द'' से बढ़ कर नहीं कोई ज़मीन

गो जहाँ जन्नत ही सारा क्यूँ न हो

कहते हैं जिस चीज़ को आब-ए-हयात

फिर वो शय गंगा की धारा क्यूँ न हो

जिस ने फैलाया जहाँ में नूर-ए-इल्म

आँख का दुनिया की तारा क्यूँ न हो

कब मिटा सकता है हम को आसमाँ

गो वो दुश्मन ही हमारा क्यूँ न हो

हिन्दू ओ मुस्लिम को लड़ते देख कर

रंज से दिल पारा पारा क्यूँ न हो

हम ने ये माना कभी लड़ भी लिए

अज़-सर-ए-नौ भाई-चारा क्यूँ न हो

क्यूँ न हो उल्फ़त अदावत क्यूँ रहे

दुश्मनी क्यूँ हो मुदारा क्यूँ न हो

हम हैं हिन्दोस्तान के सच्चे सपूत

देस की ख़िदमत गवारा क्यूँ न हो

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