जज़्बात तेज़-रौ हैं कि चश्मे उबल पड़े
जज़्बात तेज़-रौ हैं कि चश्मे उबल पड़े
जब दर्द थम सका न तो आँसू निकल पड़े
दीवाने से न कीजिए दीवानगी की बात
क्या जाने क्या ज़बान से उस की निकल पड़े
ऐ दिल मज़ा तो जब है कि हर ज़ख़्म खा के भी
पेशानी-ए-हयात पे हरगिज़ न बल पड़े
थीं रहगुज़ार-ए-ज़ीस्त में दुश्वारियाँ मगर
हम रह-रवान-ए-शौक़ थे गिर कर सँभल पड़े
'हामिद' हम अपनी मंज़िल-ए-गुम-नाम क्या कहीं
उठ्ठे जिधर भी पाँव उसी सम्त चल पड़े
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