हर-चंद दूर दूर वो हुस्न-ओ-जमाल है
हर-चंद दूर दूर वो हुस्न-ओ-जमाल है
ऐ वुसअ'त-ए-निगाह तिरा क्या ख़याल है
दुनिया-ए-आब-ओ-गिल में मसर्रत की आरज़ू
ऐसी है जैसे आप का पाना मुहाल है
लो सुब्ह-ए-इंक़लाब का भी आसरा गया
अब कारोबार-ए-ज़ीस्त तिरा क्या ख़याल है
वीरानी-ए-हयात को फिर तूल दीजिए
ये मेरी ज़िंदगी का मुक़द्दम सवाल है
दुनिया ने उस को जान के जाना नहीं अभी
'हामिद' जो एक शाइ'र-ए-सद-ख़स्ता-हाल है
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