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फ़रेब दे न कहीं अज़्म-ए-मुस्तक़िल मेरा - हामिद इलाहाबादी कविता - Darsaal

फ़रेब दे न कहीं अज़्म-ए-मुस्तक़िल मेरा

फ़रेब दे न कहीं अज़्म-ए-मुस्तक़िल मेरा

हुजूम-ए-यास से घबरा न जाए दिल मेरा

ये किस मक़ाम पे पहुँचा दिया मोहब्बत ने

कि मेरे बस में नहीं है ख़ुद आज दिल मेरा

मुबारक ऐश का माहौल ख़ुश-नसीबों को

बहुत है मेरे लिए दर्द-ए-मुस्तक़िल मेरा

सुन ऐ निगाह-ए-मोहब्बत से रूठने वाले

तिरे ख़याल में गुम है सुकून-ए-दिल मेरा

मिरे गुनाहों का अंजाम सोचने वाले

ये देख कहता है क्या अश्क-ए-मुन्फ़इल मेरा

दो-चार तिनकों की दुनिया अजीब दुनिया थी

कि मुतमइन था हर इक तरह जिस में दिल मेरा

उम्मीद-ए-लुत्फ़ किसी और से हो क्या 'हामिद'

हुआ न जब कि मोहब्बत में मेरा दिल मेरा

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