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तरब से हो आया हूँ और यास की तह तक डूब चुका हूँ - हमीद नसीम कविता - Darsaal

तरब से हो आया हूँ और यास की तह तक डूब चुका हूँ

तरब से हो आया हूँ और यास की तह तक डूब चुका हूँ

दूर हूँ अपनी खोज से अब तक कब से ख़ुद को ढूँड रहा हूँ

मैं हूँ ये घटता फैलता साया मैं ये कैसे हो सकता हूँ

वक़्त के सय्याल आईने में कौन है किस को देख रहा हूँ

दिल के किसी पिन्हाँ गोशे में अन-जानी कोई हार छिपी है

जान तपाक हैं तेरी बातें मैं बे-बात भटक जाता हूँ

देखते देखते तेरा चेहरा और इक चेहरा बन जाता है

इक मानूस मलूल सा चेहरा कब देखा था भूल गया हूँ

इक लम्हे ने मुझ से कहा था तू ही अज़ल है तू ही अबद है

लम्हा बीता बात गई इस ख़्वाब से कब का चौंक उठा हूँ

दीदा-ए-वा के दमकते ख़्वाबो मेरे साथ चलोगे कब तक

तुम कि वफ़ूर-ए-रंग-ओ-नवा हो मैं कि शिकस्त-ए-दिल की सदा हूँ

ख़ाक उड़ती है लब-बोसी को तारे आँख को छू लेते हैं

क़ुर्ब का ख़्वाहाँ मुझ से ज़माना मैं तन्हा हूँ मैं तन्हा हूँ

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