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सुब्ह चले तो ज़ौक़-ए-तलब था अर्श-निशाँ ख़ुर्शीद-शिकार - हमीद नसीम कविता - Darsaal

सुब्ह चले तो ज़ौक़-ए-तलब था अर्श-निशाँ ख़ुर्शीद-शिकार

सुब्ह चले तो ज़ौक़-ए-तलब था अर्श-निशाँ ख़ुर्शीद-शिकार

मंज़िल-ए-शाम आई तो हम हैं और शिकस्तों के अम्बार

दिल की नादानी तो देखो क्या क्या अरमाँ रखता है

जैसे दवाम का आईना हो लम्हों की गिरती दीवार

ज़ीस्त सही इक तीरा शबिस्ताँ लेकिन यारो शोला-ए-शौक़

इक दो नफ़स तो ऐसा भड़का तूर-मिसाल था दिल का दयार

कल तक मैं और तू थे बाहम रक़्स-ए-सबा और ख़ंदा-ए-गुल

आज तिरे लब यास-गुज़ीदा मेरा हर्फ़-ए-शौक़ फ़िगार

ज़मज़मा-ओ-आहंग की दुनिया क्या यकसर वीरान हुई

महफ़िल महफ़िल हू का समाँ है चेहरा चेहरा संग-ए-मज़ार

यूँ भी आगे राह कठिन है और अथाह अंधेरा है

ऐ माज़ी के शहर-ए-चराग़ाँ यूँ न मुझे पीछे से पुकार

संग-ओ-सलीब हैं मैदाँ मैदाँ और हुजूम-ए-जाँ-बाज़ाँ

कैसी धूम से आया अब के मर्ग-ए-तमन्ना का त्यौहार

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