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सवाल दिल का शाम-ए-ग़म को और उदास कर गया - हमीद नसीम कविता - Darsaal

सवाल दिल का शाम-ए-ग़म को और उदास कर गया

सवाल दिल का शाम-ए-ग़म को और उदास कर गया

तिरे वजूद में जो एक मैं था वो किधर गया

तिलिस्म-ए-शौक़ फ़िक्र-ए-ज़िंदा और कर्ब-ए-आगही

तमाम उम्र का सफ़र निगाह से गुज़र गया

चले तो हौसला जवाँ था मौज-ए-गुल थी आरज़ू

जिधर भी आँख उठ गई समाँ निखर निखर गया

कभी अँधेरी शब में इक मुहीब दश्त सामने

कभी मह-ए-तमाम साथ साथ ता-सहर गया

हर एक दौर मुनफ़रिद था अब भी दिल पे नक़्श है

गया तो यूँ लगा कि जी का एक हिस्सा मर गया

न याद की चुभन कोई न कोई लौ मलाल की

मैं जाने कितनी दूर यूँही ख़ुद से बे-ख़बर गया

निगाह-ए-दोस्त दिल-नवाज़ भी गिरह-कुशा भी थी

खुला जो दिल पे ज़िंदगी का भेद जी ठहर गया

जहाँ वजूद में था ''मैं'' अब एक और नाम है

कि मेरा बिगड़ा हुआ काम उस के लुत्फ़ से सँवर गया

वो सैल-ए-नूर शब की इब्तिदा से ता-सहर गया

दिल उस के बल पे अपने बहर-ए-ग़म के पार उतर गया

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