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है यक दो नफ़स सैर-ए-जहान-ए-गुज़राँ और - हमीद नसीम कविता - Darsaal

है यक दो नफ़स सैर-ए-जहान-ए-गुज़राँ और

है यक दो नफ़स सैर-ए-जहान-ए-गुज़राँ और

ऐ शौक़ कोई रंग-ए-नशात-ए-दिल-ओ-जाँ और

आसूदगी-आमोज़ हो जब आबला-पाई

हो जाती है मंज़िल की लगन दिल में तपाँ और

संग-ए-निगह-ए-शौक़ है यकसानी-ए-तग़ईर

हर लहज़ा नई रुत हो बहार और ख़िज़ाँ और

बेश-अज़-निगह-ए-कम नहीं पिहना-ए-शब-ओ-रोज़

ऐ आलम-ए-इम्काँ कोई नादीदा-जहाँ और

ये अर्ज़ ओ समा नंग हैं मानिंद-ए-कफ़-ए-दस्त

इक दश्त ब-अंदाज़ा-ए-चशम-ए-निगरां और

तौफ़ीक़ फ़क़त मुझ को हुआ जादा-ए-एहसास

या क़ाफ़िले इस तीरा ख़ला में हैं रवाँ और

आगाही-ए-मुतलक़ जो नहीं है मिरा मक़्दूर

इक मोहलत-ए-फ़रियाद सर-ए-कौन-ओ-मकाँ और

दिल वस्ल की लज़्ज़त का तलबगार है लेकिन

तकमील-ए-तमन्ना ग़म-ए-फ़ुर्क़त है तो हाँ और

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