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ख़ुद अपने आप से हम बे-ख़बर से गुज़रे हैं - हमीद नागपुरी कविता - Darsaal

ख़ुद अपने आप से हम बे-ख़बर से गुज़रे हैं

ख़ुद अपने आप से हम बे-ख़बर से गुज़रे हैं

ख़बर कहाँ कि तिरी रहगुज़र से गुज़रे हैं

नफ़स नफ़स है मोअ'त्तर नज़र नज़र शादाब

कि जैसे आज वो ख़्वाब-ए-सहर से गुज़रे हैं

न पूछ कितने गुल-ओ-नस्तरन का रूप लिए

बहार-ए-नौ के तक़ाज़े नज़र से गुज़रे हैं

बहार-ए-ख़ुल्द ब-हर-गाम साथ साथ रही

तिरे ख़याल में खोए जिधर से गुज़रे हैं

अमाँ मिली भी जो उन को तो तेरे दामन में

वो कारवाँ जो मिरी चश्म-ए-तर से गुज़रे हैं

दिलों पे छोड़ गए नक़्श अपनी यादों का

तुम्हारे दर्द के मारे जिधर से गुज़रे हैं

हसीं हो तुम कि तुम्हारी कोई मिसाल नहीं

हसीन यूँ तो हज़ारों नज़र से गुज़रे हैं

'हमीद' पूछ न आशोब-ए-दहर का आलम

हज़ार फ़ित्ना-ए-महशर नज़र से गुज़रे हैं

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