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नियाज़-ओ-नाज़ का पैकर न अर्श पर ठहरा - हमीद कौसर कविता - Darsaal

नियाज़-ओ-नाज़ का पैकर न अर्श पर ठहरा

नियाज़-ओ-नाज़ का पैकर न अर्श पर ठहरा

ज़मीं की गोद में उतरा तो बारवर ठहरा

गदा-ए-कूचा-ए-उलफ़त ने आबरू पाई

दयार-ए-शौक़ में सुल्ताँ से मो'तबर ठहरा

जिसे नज़र ने सुनाया जिसे नज़र ने सुना

वो गीत बरबत-ए-हस्ती का ज़ख़्मा-वर ठहरा

वफ़ा की राह में निकले तो राहदाँ की तरह

तिरे जमाल का परतव भी हम-सफ़र ठहरा

चराग़ दूर से देखूँ तो रौशनी ले लूँ

यही तरीक़-ए-गदाई मिरा हुनर ठहरा

वो एक शख़्स कि गुमनाम था ख़ुदाई में

तुम्हारे नाम के सदक़े में नामवर ठहरा

वो दुर्र-ए-नाब कि सीपी में बंद था 'कौसर'

किसी ने ढूँड निकाला तो ख़ूब-तर ठहरा

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